ज़ाकिर घुरसेना
नेताओं की मंशा क्या है? कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी देश के दो टुकड़े करने में आमादा है… क्योंकि कांग्रेस पार्टी की पकड़ उत्तर भारत में समाप्त हो रही है, जनाधार और संगठन के नाम पर नाम मात्र के लिए उपस्थिति हो रही है, ये चुनावों में हार की हताशा है, चुनाव के बाद चुनाव लगातार चुनाव में हार के बाद दक्षिण भारत में कांग्रेस पार्टी को अपने छोटे सहयोगी दल के सहयोग से आशा की किरण सरकार में आती दिखती है, इसी वजह से केरल जैसे राज्यों में भी अपने कट्टर विरोधी दल के साथ समर्थन करने से पीछे नहीं हट रही कांग्रेस पार्टी। दक्षिण भारत में ईसाई वोट , मुस्लिम वोट और दलित वोट का गठजोड़ कांग्रेस और उसके सहयोगी दल को खूब अच्छे तरह से जच रहा है, और उसी अनुरूप परिणाम देखते को मिल रहा है, इसीलिए कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस पार्टी की छुपी हुई मंशा के अनुरूप बार बार भारत को दो तरह का भारत बताया जाता है और दबी जबान में दक्षिण के राज्यों को भारत से अलग करने की दिशा की ओर कांग्रेस पार्टी जा रही है, और राहुल गांधी लगातार भारत विरोधी बयान देकर उत्तर भारतीयों से अलग थलग पड़ चुके है, कहीं राहुल के दिमाग में ये फितूर तो नहीं है, प्रधानमंत्री तो नहीं बन सका कम से कम दक्षिण राज्यों को अलग कर प्रधानमंत्री बन सकता हूँ क्या?
पिछले दिनों तीन भाषा नीति का दक्षिण भारत में जमकर विरोध हुआ था। जानकारों के मुताबिक कांग्रेस भी इस गर्मी में रोटी सेंकने की तैयारी में है। गौरतलब है कि कांग्रेस नेता राहुल गाँधी पहले भी बयान दे चुके हैं कि वे दो तरह की भारत देखते हैं। राहुल के कहने का आशय क्या है. यह तो वे ही बेहतर समझते हैं, लेकिन अक्सर राहुल गांधी अपने भाषणों में इस बात का जिक्र करते हैं। दूसरी बात उत्तर में कांग्रेस की खिसकती जमीन को देखते हुए दक्षिण में क्षेत्रीय पार्टियों से मिलकर अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को बरक़रार रखना चाहते हैं। शायद इस वजह से राहुल गाँधी दक्षिण के हिंदी विरोधियों का खुलकर विरोध नहीं कर पा रहे हों ? कांग्रेस ऐसे मौके की तलाश में ही थी दूसरी ओर परिसीमन के आड़ में दक्षिण के नेता अपनी इज्जत बचाने हिंदी का विरोध कर जनता के बीच जाना चाहते हैं। दक्षिण के नेताओं को अपनी सीट कम होते दिखा जिससे उनकी आवाज़ भी दब जायेगा ऐसा उन्हें महसूस होने लगा और परिसीमन वाला मौका अच्छा दिखा सो उन्होंने हिंदी के विरोध में सड़कों पर उतर गए साथ ही गैर भाजपा शासित मुख्यमंत्रियों को खत भी लिखा और इस सम्बन्ध में बैठक भी बुलाए जाने की जानकारी है। यह विरोध ऐसे वक्त में हुआ जब दक्षिण के राज्य परिसीमन को लेकर भी सवाल उठा रहे हैं। उन्हें डर सता रहा है कि परिसीमन होने पर लोकसभा में दक्षिण के राज्यों की सीटें कम हो सकती हैं, जिससे केंद्र में उनकी पकड़ कमजोर हो जाएगी और उनकी राजनीति पर भी प्रभाव पड़ सकता है। क्योकि उत्तर के तुलना में दक्षिण की जनसँख्या कम है और केंद्र की सोची समझी चाल मानकर हिंदी के बहाने परिसीमन का ही विरोध माना जा सकता है। यही वजह है कि परिसीमन और हिंदी का विरोध एक साथ चलने लगा और दोनों एक-दूसरे से मजबूती भी मिलने लगी है। हालांकि गृह मंत्री अमित शाह पहले भी कह चुके हैं कि परिसीमन से दक्षिण के राज्यों की सीटें नहीं घटेंगी लेकिन कोई उनकी बात पर भरोसा करने तैयार नहीं है। वास्तव में परिसीमन के बाद लोकसभा और विधानसभा की सीटों में बदलाव होगा और सीटें जनसँख्या के आधार पर ही तय होती है और दक्षिण की अपेक्षा उत्तर ने जनसँख्या ज्यादा है और उत्तर में बीजेपी की स्थिति बहुत अच्छी है। कांग्रेस की स्थिति भी उत्तर में अच्छी नहीं है उनको पैर ज़माने दक्षिण की और ही जाना पड़ेगा कर्नाटक में उनकी सरकार भी है इस लिहाज से कांग्रेस को दक्षिण के क्षेत्रीय पार्टियों से मिलकर चलना मजबूरी हो गई है। मजे की बात राहुल गाँधी दो तरह भारत की बात यदाकदा भाषणों में बोलते ही रहते हैं। उनका आशय क्या है ये तो वही जाने।
दक्षिण को मौका मिला विरोध का
तीन भाषा नीति को लेकर तमिलनाडु में फिर से हिंदी विरोध की राजनीति गरमा गई है। नई शिक्षा नीति के तीन भाषा नीति के जरिए तमिलनाडु सरकार लगातार केंद्र सरकार, भाजपा और RSS पर हिंदी थोपने का आरोप लगा रही है। तमिलनाडु को केंद्र सरकार से सर्व शिक्षा अभियान के तहत फंड नहीं मिला। मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भी लिखा है कि राज्य के करोड़ों रुपये जारी नहीं किए गए हैं। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि फंड जारी न कर उनसे बदला लिया जा रहा है। यानी सीधे सीधे प्रधानमंत्री पर फंड नहीं देने का उन्होंने आरोप लगा दिया है। वास्तव में फंड उन राज्यों को ही जारी होने की जानकारी है कि जो राज्य नई शिक्षा नीति को लागू करेंगे।
पहली बार ऐसा नहीं हो रहा
भाषाई विवाद अभी का नहीं है जब से तीन भाषा नीति लागू हुआ है दक्षिण में खासकर तमिलनाडु इसका सख्त विरोधी रहा है। उस समय भी हिंदी थोपने का आरोप लगाकर इसे नहीं अपनाया गया था और आज भी वही विरोध है। वर्तमान में केंद्र द्वारा परिसमान की घोषणा से भी दक्षिण के नेता भी आशंकित थे ऐसे में हिंदी के विरोध के नाम पर पूरे दक्षिण और गैर भाजपा शाषित राज्यों को लामबंद होने का सुनहरा मौका मिल गया।
क्या है नई शिक्षा नीति
नई शिक्षा नीति के मुताबिक एक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, दूसरी कोई अन्य भारतीय भाषा और तीसरी अंग्रेजी या कोई अन्य विदेशी भाषा होनी चाहिए। नई शिक्षा नीति विरोध का मुख्य झंडाबरदार तमिलनाडु ही रहा है और अभी वहां छात्रों को तमिल और अंग्रेजी पढ़ाई जाती है। जब केंद्र सरकार की नई एजुकेशन पॉलिसी का खाका सामने आया था, तब भी हिंदी थोपने का आरोप केंद्र पर लगाकर वहां जमकर विरोध हुआ था। उस वक्त आनन फानन में खाका में बदलाव किया गया था लेकिन विरोध का सुर ख़त्म नहीं हुआ था। वहां के नेताओं के लिए यह एक राजनीतिक मुद्दा भी हो गया था जिसके सहारे वे सत्ता के शिखर तक भी पहुंचे थे। वहां के स्थानीय नेताओ ने इसे द्रविड़ अस्मिता से जोड़कर राजनीति भी खूब चमकाई। हिंदी विरोध के रूप में वहां के क्षेत्रीय नेताओं को एक ऐसा महत्वपूर्ण मुद्दा मिला, जिसने तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीतिक दलों की नींव रखने का काम किया। वहां के बड़े और छोटे नेताओं ने द्रविड़ अस्मिता का सवाल उठाकर ही सत्ता के केंद्रबिंदु बने थे तब से आज तक यह उन नेताओं के लिए राजनीती का हथियार बन गया है। यही वजह है कि बीजेपी दक्षिण के राज्यों में अक्सर पिछड़ जाती है। वहां के नेतागण भले ही हिंदी का विरोध कर बड़े पदों को शुशोभित कर चुके हैं या कर रहे हैं लेकिन एक देश एक भाषा की परिकल्पना इस नई शिक्षा नीति को नहीं माना जा सकता जबकि इसमें स्पष्ट तौर पर व्याख्या की गई है कि क्षेत्रीय भाषाओँ को भी उतनी तवज्जो दी जाएगी जितनी दूसरी भाषाओ को। वहां पहले से ही तमिल और अंग्रेजी तो पढाई ही जा रही है अब सिर्फ हिंदी भाषा ही जोड़ना है यानी अब हिंदी तमिल और अंग्रेजी की पढ़ाई दक्षिण के राज्यों में लागू करने की मंशा केंद्र की है जिसे वहां के नेता हिंदी थोपने का आरोप लगा रहे हैं।