प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)
असम में 42 साल पुराना नेल्ली नरसंहार सुर्खियों में है. इसकी जांच रिपोर्ट असम विधानसभा में पेश की जाएगी. इसकी टाइमिंग को देखते हुए सवाल उठ रहे हैं कि जांच रिपोर्ट सार्वजनिक करने के पीछे असम सरकार की मंशा क्या है?चार दशक पहले जब पूर्वोत्तर भारत के नेल्ली में नरसंहार हुआ, उस दौरान अखिल असम छात्र संघ (आसू) के बैनर तले घुसपैठ विरोधी असम आंदोलन अपने चरम पर था. 18 फरवरी 1983 को नेल्ली इलाके के 14 गांवों में कम-से-कम 2,000 लोगों की हत्या कर दी गई थी.
इनमें ज्यादातर प्रवासी मुस्लिम थे. मारे गए लोगों में बच्चों और महिलाओं की तादाद ज्यादा थी. मृतकों का यह आंकड़ा सरकारी था. गैर-सरकारी आंकड़ों में 3,000 से ज्यादा लोगों की मौत के दावे किए गए थे.
तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने न्यायमूर्ति त्रिभुवन प्रसाद तिवारी की अध्यक्षता में एक जांच आयोग का गठन किया आयोग ने अगले साल ही अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी, लेकिन उसे अब तक सार्वजनिक नहीं किया गया था.
इतनी बड़ी घटना का राष्ट्रीय राजनीति पर कोई खास असर नहीं पड़ा. लेकिन, यह असम के राजनीतिक इतिहास का एक अहम अध्याय बन गई. असम आंदोलन के नेताओं ने इसमें अपना हाथ होने से साफ इंकार कर दिया था.
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नेल्ली इलाके के तमाम गांव पहले नगांव जिले में थे, लेकिन साल 1989 में मोरीगांव नामक नए जिले के गठन के बाद उसमें शामिल कर दिए.
हिमंता सरकार का रिपोर्ट सार्वजनिक करने का फैसला
असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने डीडब्ल्यू से कहा, “राज्य में बीते 40 साल से सत्ता में रही सरकार इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का साहस नहीं जुटा सकी. लेकिन यह हमारे इतिहास का हिस्सा है.”
मुख्यमंत्री का दावा है कि नेल्ली नरसंहार असम के राजनीतिक इतिहास का सबसे “स्याह अध्याय” है. उनके मुताबिक, अब तक समाज विज्ञानी और इतिहासकार अपने-अपने तरीके से इस नरसंहार की परिस्थितियों और जांच रिपोर्ट की व्याख्या कर रहे थे. इसके सार्वजनिक होने से आम लोगों को सही तथ्यों की जानकारी मिल जाएगी.
सीएम ने पत्रकारों को बताया, “दरअसल सरकार के पास आयोग के फैसले की जो प्रति थी, उसपर अध्यक्ष के हस्ताक्षर नहीं थे. हमने उस दौर के अधिकारियों से बातचीत और फोरेंसिक जांच से इसकी प्रमाणिकता की पुष्टि कर ली है.”
राज्य की बीजेपी सरकार के फैसले के बाद सवाल उठ रहे हैं कि आखिर इतने साल बाद जांच रिपोर्ट को विधानसभा में पेश करने का फैसला क्यों लिया गया?
राजनीतिक संगठन और प्रभावित लोगों की शंकाएं
इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के फैसले के बाद इसके पीछे की मंशा पर सवाल उठ रहे हैं. राजनीतिक संगठनों के साथ ही नेल्ली के हिंसा-प्रभावित कई लोगों ने सवाल उठाते हुए कहा है कि इतने लंबे समय बाद पुराने घाव को कुरेदने से क्या फायदा होगा. कई लोगों को आशंका है कि रिपोर्ट के सामने आने से राज्य में शांति और सद्भाव का माहौल बिगड़ सकता है.
कांग्रेस पार्टी के लीडर और विधानसभा में विपक्ष के नेता देवब्रत सैकिया डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं, “मुझे इतनी पुरानी जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की कोई वजह समझ में नहीं आ रही है. नेल्ली के घाव सूख गए हैं, अब उनको कुरेदने से क्या फायदा होगा? क्या अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए ही ऐसा किया जा रहा है?”
देवब्रत सैकिया का आरोप है कि मशहूर गायक जुबीन गर्ग की मौत के बाद राज्य के लोग जिस तरह एकजुट होकर न्याय की मांग कर रहे हैं, उससे सरकार सांसत में है. इससे ध्यान हटाने के लिए ही सरकार ने रिपोर्ट सार्वजनिक करने का फैसला किया है. उन्होंने कहा कि सरकार को पहले जुबीन गर्ग की मौत के कथित रहस्य का पता लगाना चाहिए.
स्नेहलता बर्मन, असम के एक कॉलेज में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, “नेल्ली नरसंहार इतिहास का एक ऐसा अध्याय है, जो असम की राजनीति में अब भी प्रासंगिक है. सरकार, राज्य की मौजूदा परिस्थिति में इस रिपोर्ट का सार्वजनिक कर उसका राजनीतिक फायदा उठाना चाहती है. सरकार के फैसले की टाइमिंग ही इस पर सवाल खड़े करती है.”
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लेकिन, उस दौर में असम आंदोलन करने वाले आसू के अध्यक्ष उत्पल शर्मा सरकार के फैसले का समर्थन करते हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, “इतने अहम दस्तावेज को चार दशक से भी ज्यादा समय तक सार्वजनिक नहीं करने का फैसला गलत था. जांच आयोग का गठन तत्कालीन सरकार ने ही किया था. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर बीते चार दशक के दौरान सत्ता में रही सरकार ने इस रिपोर्ट को सदन में पेश क्यों नहीं किया?”
नेल्ली नरसंहार के समय का राजनीतिक-सामाजिक माहौल
नेल्ली नरसंहार के बाद कुल 688 मामले दर्ज किए गए थे. पुलिस ने इनमें से 310 मामलों में चार्जशीट भी दाखिल की थी. लेकिन, साल 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर होने पर अभियुक्तों को पूरी तरह छूट दे दी गई थी.
उस दौर को याद करते हुए समाज विज्ञानी दिनेश भट्टाचार्य ने डीडब्ल्यू को बताया, “नेल्ली इलाके में पहले से ही बड़े पैमाने पर तनाव था. उससे पहले आस-पास के कई इलाकों में हिंसा हो चुकी थी. पुलिस और खुफिया अधिकारियों ने सरकार को इसकी जानकारी भी दी थी. बावजूद इसके 14 और 17 फरवरी 1983 को इलाके में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान कराए गए. असम आंदोलन में शामिल संगठनों ने उस चुनाव के बहिष्कार का एलान किया था.”
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दिनेश भट्टाचार्य बताते हैं कि असमिया समुदाय के ज्यादातर लोगों ने चुनाव का बायकॉट किया. लेकिन, बांग्लाभाषी मुसलमानों ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. इससे आंदोलनकारियों में भारी नाराजगी पैदा हुई. यही नाराजगी नेल्ली नरसंहार के तौर पर सामने आई.
आलोचकों का कहना है कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अपनी नाकामियों को छिपाने और वोटबैंक की राजनीति को जारी रखने के लिए जांच आयोग की रिपोर्ट को दबा दिया था.
पीड़ित परिवारों के सवाल
नेल्ली नरसंहार में अपनों को खोने वाले कई लोग भी सरकार के फैसले से असमंजस में हैं. उनका सवाल है कि अब इतने साल बाद पुराने घाव को कुरेद कर क्या हासिल होगा, जबकि नरसंहार के ज्यादातर आरोपी तो मारे जा चुके हैं.
नेल्ली के रहने वाले रहमान ने उस हिंसा में परिवार के 10 लोगों को खोया था. उनमें उनके माता-पिता और बच्चे भी शामिल थे.
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रहमान डीडब्ल्यू को बताते हैं, “नरसंहार से पहले ही इलाके में भारी तनाव था. कई जगह हिंसा हो रही थी. मैंने स्थानीय थाने में भी इसकी सूचना देते हुए बड़े पैमाने पर हमले की आशंका जताई थी. तब पुलिस ने सुरक्षा का भरोसा दिया था, लेकिन करीब 24 घंटे तक जारी हिंसा के दौरान पुलिस या सुरक्षा बल का एक भी जवान मौके पर नहीं पहुंचा था.”
नेल्ली के ही एक अन्य निवासी अब्दुर सत्तार बताते हैं कि उन्होंने और उनकी पत्नी ने तैरकर कोपिली नदी पार की और अपनी जान बचाई. लेकिन, उनके परिवार के 24 सदस्य उस नरसंहार में मारे गए थे. अब्दुल सत्तार डीडब्ल्यू से बताते हैं, “हमलावरों ने पहले बच्चों को मारा और फिर महिलाओं को. उस दिन कोपिली नदी लाशों से भर गई थी, उसका पानी लाल हो गया था.”
कोपिली नदी के दूसरे किनारे पर मुलाधारी गांव है. यहां के निवासी अंसार अली को अब भी वह दिन पूरी तरह याद है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, “मैं आखिरी सांस तक उस मंजर को नहीं भूल सकता. सुबह-सवेरे ही असमिया लोगों की भारी भीड़ गांव में पहुंची और बच्चे से लेकर बूढ़ों तक, सबकी हत्या शुरू कर दी. मैं किसी तरह जान बचाकर गांव से भागा था.”
अंसार अली की जान तो बच गई, लेकिन उनके परिवार के बाकी छह सदस्य नहीं रहे. अंसार अली बताते हैं कि धारदार हथियार से उनकी हत्या कर दी गई थी.
इन लोगों का सवाल है कि क्या अब रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से नरसंहार के जिम्मेदार लोगों को सजा दी जा सकेगी और अपनों को खोने वालों को न्याय मिलेगा? इन सवालों के जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है.

