प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)
‘वंदे मातरम’ भारत का राष्ट्रीय गीत है. 150 साल पहले इस गीत को लिखा गया था. लेकिन अचानक यह गीत राजनीति और विवाद के केंद्र में आ गया है. आखिर क्यों?सात नवंबर को ‘वंदे मातरम’ गीत के 150 साल पूरे होने पर दिल्ली में एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन हुआ जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस पार्टी ने इस गीत के साथ तोड़-मरोड़ की. प्रधानमंत्री वंदे मातरम गीत के 150 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में साल भर चलने वाले समारोहों का उद्घाटन कर रहे थे.
वहीं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश के सभी स्कूलों में वंदे मातरम के गायन को अनिवार्य करने का ऐलान कर मामले को और तूल दे दिया है. गोरखपुर में एकता पदयात्रा के दौरान योगी आदित्यनाथ ने ये घोषणा की और कहा कि कोई भी धर्म राष्ट्र से ऊपर नहीं है.
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योगी आदित्यनाथ की घोषणा पर राजनीतिक प्रतिक्रियाएं तो आ ही रही हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से कांग्रेस पार्टी पर वंदे मातरम गीत के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगाया है, उसे लेकर भी सवाल उठ रहे हैं.
प्रधानमंत्री ने वंदे मातरम को लेकर कहा, “दुर्भाग्य से, 1937 में नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने मूल ‘वंदे मातरम’ गीत से महत्वपूर्ण पद हटा दिए थे. ‘वंदे मातरम’ को टुकड़ों में तोड़ दिया गया. इसने विभाजन के बीज भी बो दिए. यह अन्याय क्यों किया गया? वही विभाजनकारी विचारधारा आज भी राष्ट्र के लिए एक चुनौती बनी हुई है.”
क्यों उठ रहे हैं सवाल?
डेढ़ सौ साल पुराने इस मुद्दे को अचानक राजनीति और विवाद को केंद्र में लाने के पीछे वजह क्या है, इस पर भी सवाल उठ रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि वंदे मातरम पर उठा विवाद अचानक नहीं है, बल्कि यह सोच-समझकर विवाद के केंद्र में लाया गया.
वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार झा कहते हैं, “आने वाले समय में पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव हैं. बीजेपी इस चुनाव में किसी भी तरह जीत हासिल करना चाहती है. पिछला चुनाव सभी कोशिशों के बावजूद नहीं जीत पाई लेकिन अब एक नया मुद्दा उसे मिल गया है. चूंकि वंदे मातरम के रचयिता भी बंगाली थे तो इसे बंगाल चुनाव तक जीवित रखने की कोशिश राजनीतिक लाभ दिलाने में मददगार हो सकती है, यही सोचा होगा बीजेपी और आरएसएस ने. दूसरे, इस गीत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी ध्रुवीकरण में मददगार साबित हो सकती है. इसलिए निश्चित तौर पर इसके पीछे राजनीतिक उद्देश्य हैं.”
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उधर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिस तरह से दो कदम आगे बढ़कर प्रदेश की सभी स्कूलों राष्ट्रगीत वंदे मातरम को अनिवार्य करने का ऐलान किया है, उससे बीजेपी के राजनीतिक मकसद और स्पष्ट हो जाते हैं. हालांकि योगी आदित्यनाथ की इस घोषणा का राज्य के कई मुस्लिम नेताओं ने खुलकर विरोध किया है.
विरोध की वजह
यूपी के संभल से समाजवादी पार्टी के सांसद जियाउर्रहमान बर्क साफतौर पर कहते हैं वंदे मातरम गीत में हमारे मजहब के खिलाफ शब्द हैं, इसलिए हम इस गीत को नहीं गाएंगे. डीडब्ल्यू से बातचीत में सांसद बर्क कहते हैं, “हम राष्ट्रगान का पूरा सम्मान करते हैं और उसका गान भी करते हैं. वंदे मातरम कोई गान नहीं बल्कि गीत है. यह हमारा संविधान ही नहीं कहता बल्कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी 1986 में केरल के मामले में स्पष्ट कर चुका है जब तीन बच्चों को स्कूल से निकाल दिया गया था. उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इसे गाने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता.”
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जियाउर्रहमान बर्क के दादा डॉक्टर शफीकुर्रहमान बर्क भी संभल से सांसद रहे हैं. उन्होंने संसद में भी वंदे मातरम का विरोध किया था और वंदे मातरम गायन के वक्त सदन छोड़कर बाहर चले गए थे.
वहीं यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कहना है कि इसके पीछे राजनीति और जरूरी मुद्दों से ध्यान भटकाना है, इसके सिवाय कुछ नहीं. मीडिया से बातचीत में अखिलेश यादव ने कहा, “ये बहस आज हम कर रहे हैं, क्या संविधान बनाते समय संविधान निर्माताओं ने नहीं की थी? बहस और आम सहमति के बाद ही राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत दिया गया.”
कब लिखा गया ‘वंदे मातरम’?
दरअसल, जो वंदे मातरम भारत का राष्ट्रीय गीत है, उसे बंकिम चंद्र चटर्जी ने लिखा था और ये 7 नवंबर, 1875 को साहित्यिक पत्रिका बंगदर्शन में प्रकाशित हुआ था. बाद में इस गीत को बंकिम चंद्र चटर्जी के मशहूर उपन्यास आनंदमठ में शामिल किया गया. आनंदमठ 1882 में प्रकाशित हुआ और यह उपन्यास संन्यासी विद्रोह की पृष्ठभूमि पर आधारित है.
संन्यासी विद्रोह 1763 से 1800 के बीच हुआ था. वास्तव में यह विद्रोह बंगाल प्रेसीडेंसी (तब बिहार और उड़ीसा भी इसी का हिस्सा थे) में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ हिंदू संन्यासियों और मुस्लिम फकीरों के नेतृत्व में लगातार चलने वाला सशस्त्र विद्रोह था. विद्रोह के प्रमुख कारणों में ब्रिटिश नीतियों के कारण होने वाला आर्थिक शोषण, करों की ऊंची दर और तीर्थयात्रियों पर लगे प्रतिबंध शामिल थे. इसका नेतृत्व पंडित भवानीचरण पाठक, देवू रानी चौधरी और मजूनं शाह जैसे नेताओं ने किया था.
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आनंदमठ उपन्यास इसी पृष्ठभूमि पर है लेकिन इसमें संन्यासियों के विद्रोह का ही जिक्र है, फकीरों का नहीं.
उपन्यास पर मुस्लिम विरोधी भावनाएं भड़काने के आरोप भी लगे थे लेकिन स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वंदे मातरम गीत राष्ट्रीय भावनाओं को अभिव्यक्त करने का माध्यम बन गया. 1896 में कांग्रेस पार्टी के कलकत्ता अधिवेशन में पहली बार इसका गायन हुआ था और गाने वाले थे गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर. उस साल कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे रहमतुल्लाह सयानी.
कैसे बना राष्ट्रगीत?
1905 में बंगाल विभाजन के दौरान तो इस गीत को और लोकप्रियता मिली. यह गीत पूरे बंगाल का गीत बन गया. लेकिन इसी दौरान मुस्लिम लीग की स्थापना होती है और स्वाधीनता आंदोलन में सांप्रदायिकता का प्रवेश होता है. ऐसी स्थिति में वंदे मातरम पर भी सवाल उठने लगे. यहां तक कि 1923 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में भी इसका विरोध देखने को मिला जब कांग्रेस की अध्यक्षता कर रहे मोहम्मद अली जौहर ने वंदे मातरम गाने से इनकार कर दिया और गायन शुरू होते ही अध्यक्ष की कुर्सी से उठकर चले गए.
धीरे-धीरे यह मुद्दा तूल पकड़ता गया और मुस्लिम लीग ने आरोप लगाना शुरू कर दिया कि कांग्रेस मुसलमानों पर देवी-देवताओं की आराधना थोप रही है जबकि उनके लिए मूर्ति-पूजा हराम है. दूसरी ओर, हिन्दू संप्रदायवादी इस गीत और इसके शीर्षक ‘वंदे मातरम’ का इस्तेमाल देशभक्ति से ज्यादा मुस्लिम विरोध के नारे के रूप में करने लगे.
1937 में कांग्रेस पार्टी का अधिवेशन फैजपुर में हुआ जिसकी अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की. नेहरू के नेतृत्व में गीत के केवल पहले दो छंदों को अपनाया गया और बाद के छंदों जिनमें दुर्गा की स्तुति थी, उन्हें हटा दिया गया और वंदे मातरम के इसी रूप को 1950 में संविधान सभा ने राष्ट्रीय गीत घोषित किया.
इतिहासकार प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी कहते हैं, “इसे रवींद्रनाथ टैगोर ने भले ही गाया था लेकिन 1937 में कांग्रेस अधिवेशन में जब इसे शामिल करना था तो यही राय बनी कि इसमें एक जगह मंदिर आया है, दो जगह दुर्गा आई हैं, तो मुसलमानों को यह स्वीकार नहीं होगा. और जिस कमेटी ने इसकी सिफारिश की, उसमें सुभाष चंद्र बोस थे, मौलाना आजाद थे और आचार्य नरेंद्र देव थे. समिति के फैसले को महात्मा गांधी ने प्रस्ताव के तौर पर रखा और फिर कांग्रेस पार्टी ने इसे स्वीकार किया.”
प्रोफेसर चतुर्वेदी कहते हैं कि तब तो देश आजाद नहीं हुआ था लेकिन संविधान सभा में भी जब इसी स्वरूप को स्वीकार किया गया है तो इस पर सवाल उठाना संविधान को कठघरे में खड़ा करने जैसा है. पूरी तरह विचार-विमर्श के बाद ही इसे उस संविधान सभा ने स्वीकार किया है जिसकी अध्यक्षता डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद कर रहे थे. उनके मुताबिक, “स्वतंत्रता के बाद तो सब कुछ संविधान है. रूल ऑफ लॉ तो संविधान ही है. संविधान के ऊपर कुछ नहीं है. यह तो संविधान को नकारना हुआ.”

