प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)
आरएसएस अपनी स्थापना की 100वीं सालगिरह मना रहा है. इन 100 वर्षों में आरएसएस ने एक लंबी यात्रा जरूर तय की, लेकिन स्वाधीनता संघर्ष के दौर में संघ और संघ से जुड़े लोगों की भूमिका को लेकर आज भी वो सवालों के घेरे में रहता है.आरएसएस की स्थापना 27 सितंबर, 1925 को हुई. तिथि के अनुसार, यह विजयदशमी का दिन था. 100 साल बाद 2025 में विजयदशमी 2 अक्टूबर को आई है. इस दिन गांधी जयंती मनाई जाती है और इस साल इसी दिन आरएसएस अपनी स्थापना की 100वीं वर्षगांठ मना रहा है.
पीएम मोदी और आरएसएस के बीच चल क्या रहा है?
जनवरी 1948 में गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया गया था. गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे का पहले आरएसएस से संबंध था. बाद में वह हिंदू महासभा से जुड़ा. आरएसएस को गांधी की हत्या में प्रत्यक्ष भूमिका से बरी किया गया था लेकिन तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने आरएसएस पर “सांप्रदायिक जहर” फैलाने का आरोप लगाया था.
100 साल की आरएसएस की यह यात्रा कई विवादों से भरी रही और संघ अभी भी विवादों में घिरा रहता है. हालांकि, उपलब्धि के तौर पर आरएसएस ने इन बरसों में बहुत कुछ हासिल भी किया है. सबसे बड़ी बात तो यही है कि जबकि आजादी के आंदोलन का संघ के नेता विरोध करते रहे थे, संघ के शताब्दी वर्ष के जश्न के वक्त आजाद भारत में उसी की विचारधारा से निकली राजनीतिक पार्टी केंद्र और कई राज्यों में सरकार चला रही है.
शताब्दी वर्ष पर “भारत माता” की छवि के साथ सिक्का जारी
1 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गर्व की अनुभूति प्रकट करते हुए आरएसएस के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में 100 रुपये का सिक्का जारी किया और आरएसएस की कई उपलब्धियां गिनाईं. उन्होंने कहा कि जिस तरह महान नदियां अपने तटों पर मानव सभ्यताओं का पोषण करती हैं, उसी तरह आरएसएस ने भी “असंख्य लोगों को पोषित और समृद्ध” किया है.
आरएसएस पर जारी किए गए विशेष सिक्के के ऊपर एक ओर राष्ट्रीय प्रतीक ‘अशोक चक्र’ है और दूसरी ओर “भारत माता” की छवि है, जिनके आगे आरएसएस स्वयंसेवक झुक रहे हैं. यह पहली बार है, जब भारतीय मुद्रा पर “भारत माता” को दर्शाया गया है. साथ ही, सिक्के पर संघ का आदर्श वाक्य “राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय, इदं न मम” भी अंकित है.
दिल्ली के डॉक्टर अंबेडकर अंतरराष्ट्रीय केंद्र में आयोजित समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “यह हमारा सौभाग्य है कि हमें संघ जैसे संगठन का शताब्दी वर्ष देखने को मिल रहा है. संघ की शाखा का मैदान एक ऐसी प्रेरणा भूमि है, जहां स्वयंसेवक की अहं से वयं तक की यात्रा शुरु होती है. संघ ने कितने ही बलिदान दिए, लेकिन भाव एक ही रहा- राष्ट्र प्रथम. लक्ष्य एक ही रहा- एक भारत, श्रेष्ठ भारत.”
मोदी ने यह आरोप भी लगाया कि संघ के खिलाफ साजिशें की गईं. उन्होंने कहा, “राष्ट्र साधना की इस यात्रा में ऐसा नहीं है कि संघ पर हमले नहीं हुए, संघ के खिलाफ साजिशें नहीं हुईं. हमने देखा है कि कैसे आजादी के बाद संघ को कुचलने का प्रयास हुआ. मुख्यधारा में आने से रोकने के अनगिनत षड्यंत्र हुए. परमपूज्य गुरुजी को झूठे केस में फंसाया गया.”
कांग्रेस ने उठाए सवाल
कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत ने आरएसएस के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य पर दिए गए पीएम मोदी के भाषण पर सवाल किया है कि प्रधानमंत्री संघ की इतनी प्रशंसा क्यों कर रहे हैं.
समाचार एजेंसी एएनआई से बातचीत में सुप्रिया श्रीनेत ने कहा, “आरएसएस की सराहना प्रधानमंत्री मोदी किस बात के लिए कर रहे हैं? क्या आरएसएस की सराहना इसलिए की जाए कि उन्होंने आजादी की लड़ाई में अपनी छोटी उंगली का छोटा नाखून नहीं कटाया? उनकी सराहना इसलिए की जाए कि आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों को माफीनामे लिखते थे. क्या इसलिए आरएसएस की सराहना की जाए कि उन्होंने 53 साल तक तिरंगे का बहिष्कार किया, क्या इसलिए किया जाए कि सरदार पटेल ने नफरत और हिंसा फैलाने के लिए इन्हें बैन किया था.”
कांग्रेस पार्टी ने आरएसएस से यह सवाल भी पूछा है कि 100 साल के इतिहास में कोई दलित, पिछड़ा या आदिवासी इसका प्रमुख क्यों नहीं बना और संघ ने अपनी संस्था में महिलाओं को हिस्सेदारी क्यों नहीं दी?
संघ का राजनीतिक प्रभाव इस समय चरम पर है, लेकिन अल्पसंख्यकों के प्रति उसके विचार, हिन्दू राष्ट्र के प्रति आग्रह और संविधान के प्रति संघ की सोच को लेकर आज भी सवाल उठते रहते हैं.
आरएसएस की स्थापना और स्वाधीनता आंदोलन
आरएसएस की स्थापना एक हिन्दूवादी संगठन के तौर पर हुई थी जब साल 1925 में महाराष्ट्र के नागपुर में डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने संगठन की नींव रखी. हेडगेवार शुरुआती दौर में कांग्रेस से जुड़े थे, लेकिन बाद में विनायक दामोदर सावरकर के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और आरएसएस की स्थापना की.
ये वही दौर था, जब ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ स्वाधीनता आंदोलन अपने चरम पर था. स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व गांधी जी संभाल चुके थे और एक साल पहले ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बेलगांव अधिवेशन की अध्यक्षता भी कर चुके थे. स्वाधीनता संघर्ष के इसी दौर में बने इस संगठन ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया. कई इतिहासकारों ने लिखा है कि संघ ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में कोई भूमिका नहीं निभाई, बल्कि अपने संगठन निर्माण और धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यों को प्राथमिकता दी.
आरएसएस से जुड़े लोग ये दावा करते हैं कि स्वाधीनता आंदोलन में उनके संगठन से जुड़े लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने भाषण में इस बात का जिक्र किया.
दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार धीरेंद्र झा ने आरएसएस पर गहन शोध किया है और कई किताबें लिखी हैं. आरएसएस से जुड़े संगठनों और उनकी कार्यशैली पर लिखी उनकी किताब ‘शैडो आर्मीज: फ्रिंज ऑर्गेनाइजेशन्स एंड फुट सोल्जर्स ऑफ हिन्दुत्व’ काफी चर्चित रही है. डीडब्ल्यू से बातचीत में धीरेंद्र झा कहते हैं, “स्वतंत्रता आंदोलन में आरएसएस के हिस्सा लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि आरएसएस का आधार हिंदुत्व की विचारधारा थी जो “हिन्दुओं को ये बताने की कोशिश कर रही थी कि उनके सबसे बड़े दुश्मन मुसलमान हैं, ना कि ब्रिटिश सरकार.”
भारत की आजादी के बाद पहली बार वोट पड़ा है यहां
धीरेंद्र झा कहते हैं, “आरएसएस का मूल तर्क ब्रिटिश विरोधी बिल्कुल नहीं था, बल्कि एक स्तर पर वो ब्रिटिश-समर्थक ही रहा था. देखा जाए तो वो ब्रिटिश-विरोधी आंदोलन को विभाजित कर रहा था. चूंकि स्वतंत्रता आंदोलन में हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल थे, लेकिन आरएसएस केवल हिंदू हितों की बात कर रहा था.”
सांस्कृतिक संगठन
आरएसएस खुद को एक सांस्कृतिक संगठन बताता है जिसका मकसद हिंदू संस्कृति, हिंदू एकता और आत्मनिर्भरता के मूल्यों को बढ़ावा देना है. संघ का कहना है कि वो राष्ट्र सेवा और भारतीय परंपराओं व विरासत के संरक्षण जैसे विषयों पर जोर देता है. आरएसएस खुद को गैर-राजनीतिक संगठन भी बताता है, लेकिन आलोचक कहते हैं कि राजनीति ही नहीं बल्कि चुनावी राजनीति में उसकी भूमिका और अहमियत प्रत्यक्ष हैं. उसका राजनीतिक असर जनसंघ से लेकर बीजेपी तक स्पष्ट है.
बीजेपी के कई बड़े नेता ना सिर्फ आरएसएस से जुड़े रहे हैं, बल्कि इस बात पर गौरवान्वित भी महसूस करते हैं. इनमें बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक शामिल हैं.
आरएसएस से जुड़े लोग इसे एक गैर-सरकारी संगठन यानी एनजीओ बताते हैं, लेकिन इस रूप में आरएसएस कहीं भी पंजीकृत नहीं है. इस वजह से संघ को मिलने वाले पैसे और इतना बड़ा संगठन चलाने के आर्थिक स्रोत को लेकर कई बार सवाल उठते हैं. हालांकि, संघ का कहना है कि वो एक आत्मनिर्भर संगठन है. किसी बाहरी संगठन या व्यक्ति से पैसा नहीं लिया जाता, बल्कि संघ से जुड़े लोग स्वेच्छा से दान करते हैं.
संघ में संघ प्रमुख, यानी सरसंघचालक चुनने की भी कोई प्रक्रिया नहीं है और ना ही उनकी कोई रिटायरमेंट की उम्र है. अब तक संघ में कुल छह सरसंघचालक हुए हैं और ज्यादातर इस पद पर आजीवन रहे हैं. अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति भी वही करते हैं.
आरएसएस पर प्रतिबंध
पहली बार 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद ही आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया गया था. चूंकि गोडसे अतीत में आरएसएस का सदस्य रहा था, इसलिए महात्मा गांधी की हत्या में संघ की भूमिका भी संदेह के घेरे में थी. उस वक्त आरएसएस को सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा देने वाला संगठन मानते हुए सरकार ने फरवरी 1948 में उसपर प्रतिबंध लगा दिया था और संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर को गिरफ्तार कर लिया था.
गोलवलकर ने तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को कई पत्र लिखे, जिनके जवाब में सरदार पटेल ने लिखा, “संघ के सभी भाषण सांप्रदायिक जहर से भरे हुए थे, जिनके अंतिम परिणाम के रूप में देश को गांधीजी का बलिदान झेलना पड़ा.”
क्या भारत के संविधान से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटाए जा सकते हैं?
फिर 11 जुलाई, 1949 को भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा रखने, हिंसा से दूर रहने और राष्ट्रीय ध्वज को मान्यता देने के आरएसएस के वादे के बाद यह कहते हुए प्रतिबंध हटा लिया गया कि एक लोकतांत्रिक, सांस्कृतिक संगठन के रूप में उसे कार्य करने का अवसर दिया जाना चाहिए.
आरएसएस पर दूसरी बार प्रतिबंध साल 1975 में लगाया, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी की घोषणा की. ये प्रतिबंध 1977 में आपातकाल के खत्म होने के साथ ही समाप्त हो गया. तीसरी बार, साल 1992 में आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया गया जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाई गई. लेकिन जून 1993 में बाहरी आयोग ने इस प्रतिबंध को अनुचित माना और सरकार को उसे हटाना पड़ा.
गृह मंत्रालय का आदेश
आरएसएस की कथित संदिग्ध गतिविधियों के कारण साल 1966 में गृह मंत्रालय ने एक आदेश जारी किया. इसके तहत स्पष्ट किया गया कि किसी भी सरकारी कर्मचारी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंध नहीं रखना होगा. इस आदेश में आरएसएस के अलावा जमात-ए-इस्लामी का सदस्य होने की भी मनाही थी. आदेश में स्पष्ट किया गया था कि यदि कोई सरकारी कर्मचारी इन दोनों संगठनों से जुड़ा पाया गया, तो सिविल सर्विस आचरण नियमों के तहत उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी.
इस आदेश में यह भी कहा गया था कि कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी राजनीतिक दल या किसी ऐसे संगठन का सदस्य नहीं हो सकता, जो राजनीति में हिस्सा लेता हो. गृह मंत्रालय ने ऐसा ही आदेश साल 1970 और 1980 में भी जारी किया था.
जुलाई 2024 में केंद्र सरकार के नियुक्ति और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने एक सर्कुलर जारी करते हुए कहा कि साल 1966, 1970 और 1980 में दिए गए निर्देशों की समीक्षा के बाद उन आदेशों से आरएसएस का नाम हटाने का फैसला किया गया है. यानी, अब सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस से जुड़े होने में कोई दिक्कत नहीं है.
कई आलोचक ध्यान दिलाते हैं कि केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार पिछले 11 साल से सत्ता में है. बीजेपी के पूर्ण बहुमत पाने के बावजूद इस आदेश को पारित करने में 10 साल का समय लगा.

